एम्स ने प्रेस रिलीज में बताया कि 92 वर्षीय मनमोहन सिंह को गुरुवार की शाम घर पर “अचानक बेहोश” होने के बाद गंभीर हालत में एम्स के आपातकालीन विभाग लाया गया था. मनमोहन सिंह लगातार दो बार भारत के प्रधानमंत्री रहे और उनकी व्यक्तिगत छवि काफी साथ-सुथरी रही.
भारत में आर्थिक सुधारों का श्रेय उन्हें ही जाता है. फिर चाहे उनका 2004 से 2014 का प्रधानमंत्री का कार्यकाल रहा हो या फिर इससे पूर्व वित्त मंत्री के रूप में उनका कामकाज.
मनमोहन सिंह के नाम एक और उपलब्धि दर्ज है, वह जवाहरलाल नेहरू के बाद पहले भारतीय थे, जो लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री बने. मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख दंगों के लिए संसद में माफ़ी मांगी थी. 1984 में हुए सिख दंगों में लगभग 3000 सिख मारे गए थे.
मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री के रूप में दूसरा कार्यकाल खासा चर्चित रहा. इस दौरान भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए. कई लोगों का मानना है कि इन घोटालों की वजह से ही 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा.
मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितंबर 1932 को अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में हुआ था. यह हिस्सा अब पाकिस्तान में है. पंजाब यूनिवर्सिटी से पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से मास्टर्स किया और ऑक्सफॉर्ड से डी फिल किया.
मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि कैंब्रिज में पढ़ाई के दौरान उन्हें आर्थिक तंगी से गुज़रना पड़ा था. दमन सिंह ने लिखा था, ”उनकी ट्यूशन और रहने का खर्च सालाना लगभग 600 पाउंड था. पंजाब यूनिवर्सिटी की स्कॉलरशिप से उन्हें करीब 160 पाउंड मिलते थे, बाकी के लिए उन्हें अपने पिता पर निर्भर रहना पड़ता था. मनमोहन बेहद सादगी और किफायत से जीवन बिताते थे. डाइनिंग हॉल में सब्सिडी वाला भोजन अपेक्षाकृत सस्ता था, जिसकी कीमत दो शिलिंग छह पेंस थी.”
दमन सिंह ने अपने पिता को “घर के कामों में पूरी तरह असहाय” बताते हुए कहा कि “वो न तो अंडा उबाल सकते थे और न ही टीवी चालू कर सकते थे.”
मनमोहन सिंह साल 1991 में भारत के वित्त मंत्री के तौर पर उभरे, ये ऐसा दौर था जब देश के आर्थिक हालात बहुत ख़राब थे.
उनकी अप्रत्याशित नियुक्ति ने उनके लंबे और सफल करियर को नई ऊंचाई दी. उन्होंने एक शिक्षाविद और नौकरशाह के रूप में तो काम किया ही, सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में भी योगदान किया और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रहे.
वित्त मंत्री के रूप में अपने पहले भाषण में उन्होंने विक्टर ह्यूगो का हवाला देते हुए कहा, “इस दुनिया में कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है.”
ये भाषण उनके महत्वाकांक्षी और अभूतपूर्व आर्थिक सुधार कार्यक्रम की शुरुआत थी. उन्होंने टैक्स में कटौती की, रुपये का अवमूल्यन किया, सरकारी कंपनियों का निजीकरण किया और विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया.
इससे अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ, उद्योग तेजी से बढे़, बढ़ रही महंगाई पर काबू पाया गया और 1990 के दशक में विकास दर लगातार ऊंची बनी रही.
मनमोहन सिंह को बहुत अच्छी तरह से पता था कि उनका राजनीतिक जनाधार नहीं है.
उन्होंने कहा था, ”राजनेता बनना अच्छी बात है. लेकिन लोकतंत्र में राजनेता बनने के लिए आपको पहले चुनाव जीतना पड़ता है.”
लेकिन जब उन्होंने 1999 में लोकसभा का चुनाव जीतने की कोशिश की तो निराशा हाथ लगी. हालांकि कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा में भेजा. 2004 में भी ऐसा ही हुआ. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने से इनकार करने पर मनमोहन सिंह पीएम बने.
तब सोनिया गांधी पर उनके विदेशी मूल को लेकर सवाल उठाए गए थे. हालांकि आलोचकों का कहना था कि भले ही मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाए गए हों, लेकिन असली ताकत तो सोनिया गांधी के पास है.
मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी कामयाबी प्रधानमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता था. उनके समय में ये ऐतिहासिक समझौता हुआ और इसकी बदौलत अमेरिका की परमाणु टेक्नोलॉजी तक भारत की पहुंच बन गई.
लेकिन इस सौदे की कीमत भी चुकानी पड़ी. मनमोहन सिंह सरकार को समर्थन दे रहे वामपंथी दलों ने समर्थन वापस ले लिया.
कांग्रेस को बहुमत जुटाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी. उसे दूसरी पार्टियों से समर्थन लेना पड़ा और इस दौरान कांग्रेस पर आरोप लगा कि उसने सांसदों का समर्थन खरीदने के लिए पैसे खर्च किए.
मनमोहन सिंह आम सहमति कायम करने के पक्षधर थे. उन्होंने उस दौरान गठबंधन सरकार का जिम्मा संभाला जब सहयोगी दलों को मनाना मुश्किल काम होता था. वो मुखर थे. मनमोहन सरकार को समर्थन देने वाली क्षेत्रीय पार्टियां भी अपनी मांग बढ़-चढ़ कर रखती थीं. दूसरी समर्थक पार्टियां भी इसमें पीछे नहीं थीं.
हालांकि मनमोहन सिंह को उनकी विश्वसनीयता और बुद्धिमत्ता की वजह से भरपूर सम्मान मिला. उन्हें नरम व्यक्तित्व का माना जाता था और कहा जाता था कि वो निर्णय लेने में सक्षम नहीं हैं. कुछ आलोचकों का कहना था कि उनके कार्यकाल में आर्थिक सुधारों की गति धीमी हो गई. वित्त मंत्री के तौर पर उन्होंने जिन आर्थिक सुधारों की गति दी थी उन्हें प्रधानमंत्री रहते आगे नहीं बढ़ा पाए.
अपने विदेश नीति में, मनमोहन सिंह ने अपने दो पूर्ववर्तियों की व्यावहारिक राजनीति को आगे बढ़ाया. उन्होंने पाकिस्तान के साथ शांति प्रक्रिया जारी रखी, लेकिन इसमें उन हमलों के कारण रुकावट आई, जिनका आरोप पाकिस्तानी चरमपंथियों पर लगा.
इसका चरम नवंबर 2008 के मुंबई हमले और बम धमाके में देखने को मिला.उन्होंने चीन के साथ सीमा विवाद खत्म करने की कोशिश की और 40 साल से अधिक समय से बंद नाथू ला दर्रा फिर से खोलने के लिए समझौता किया.
मनमोहन सिंह ने अफ़ग़ानिस्तान के लिए वित्तीय सहायता बढ़ाई और लगभग 30 वर्षों में वहां जाने वाले पहले भारतीय नेता बने. साथ ही, उन्होंने भारत के पुराने सहयोगी ईरान से रिश्ते खत्म करने का संकेत देकर कई विपक्षी नेताओं को नाराज़ भी किया.
एक मेहनती पूर्व शिक्षक और नौकरशाह के रूप में, वो अपनी विनम्रता और शांत स्वभाव के लिए जाने जाते थे. उनका ट्विटर अकाउंट (एक्स) साधारण और नीरस पोस्ट्स के लिए जाना जाता था, जिसके फॉलोअर्स की संख्या भी काफी कम थी.
मनमोहन सिंह मितभाषी थे. वो हमेशा शांत नज़र आते थे. उनके व्यक्तित्व के इन पहलुओं की वजह से उनके कई प्रशंसक थे.
कोयला खदानों के अवैध आवंटन से जुड़े अरबों डॉलर के घोटाले के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने इस मामले पर अपनी चुप्पी का बचाव करते हुए कहा था कि उनकी ”ये चुप्पी हजारों शब्दों के जवाब से बेहतर है.”
2015 में उन्हें आपराधिक साजिश, भरोसा तोड़ने और भ्रष्टाचार से जुड़े अपराधों के आरोपों पर जवाब देने के लिए कोर्ट में बुलाया गया. इस दौरान परेशान मनमोहन सिंह ने संवाददाताओं कहा था, वो ”जांच के लिए पूरी तरह से तैयार” हैं. सच की जीत होगी.”
प्रधानमंत्री का अपना कार्यकाल ख़त्म करने के बाद बढ़ती उम्र के बावजूद वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के तौर पर विपक्ष की राजनीति में सक्रिय रहे.
अगस्त 2020 में उन्होंने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि कोविड महामारी से अर्थव्यवस्था को पहुंचे नुक़सान की भरपाई के लिए भारत को तीन कदम तुरंत उठाने चाहिए. इस महामारी ने भारत की अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख दिया था.
उन्होंने कहा था कि सरकार को लोगों को कैश देना चाहिए. साथ ही कारोबारियों को पूंजी मुहैया करानी चाहिए और वित्तीय सेक्टर की दिक्कतों को दूर करना चाहिए. और आख़िर में इतिहास में मनमोहन सिंह को इस शख़्स के तौर पर याद किया जाएगा जिन्होंने भारत को आर्थिक और परमाणु अलगाव से बाहर निकाला. हालांकि कुछ इतिहासकार कहेंगे कि उन्हें काफी पहले रिटायर हो जाना चाहिए था.
2014 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ”मेरा पूरा विश्वास है कि मौजूदा मीडिया और संसद में मौजूद विपक्षी पार्टियों की तुलना में इतिहास मेरे प्रति ज्यादा दयालु होगा.”