यूजीसी कई बड़े बदलाव करने जा रहा है. ऐसे में अब किसी भी यूनिवर्सिटी के वीसी को चुनने के लिए ये जरूरी नहीं होगा कि वो व्यक्ति प्रोफेसर हों. इसके साथ ही बिना नेट और पीएचडी के भी लोग प्रोफेसर बन सकेंगे. आइए हम आपको बताते हैं कि अबतक वीसी बनने और प्रोफेसर बनने के लिए क्या नियम थे और अब क्या बदलाव होने जा रहे हैं. इसके साथ ही हम आपको बताएंगे कि देश में कितने पद केंद्रीय व राज्य के विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के कितने पद हैं.
पहले, शिक्षक बनने के लिए एक ही विषय में अंडर ग्रेजुएट (यूजी), पोस्ट ग्रेजुएट (पीजी) और पीएचडी की डिग्री होना जरूरी था. राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत विश्वविद्यालयों में शिक्षक बनने की प्रक्रिया में अब अधिक लचीलापन प्रदान किया जा रहा है. इसका उद्देश्य यह है कि उच्च शिक्षा में छात्रों को विभिन्न विषयों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया जाए और उन्हें अधिक विविध विकल्प उपलब्ध कराए जाएं.
जो स्नातक किसी विशेष क्षेत्र में महारत हासिल करते हैं, वे उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षक बन सकेंगे. इसमें योग, नाटक, फाइन आर्ट्स जैसे क्षेत्रों में विशेष कौशल रखने वाले व्यक्तियों को शिक्षक बनने का अवसर मिलेगा. वे सीधे असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए आवेदन कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए उनके पास राष्ट्रीय स्तर का पुरस्कार या सम्मान होना अनिवार्य होगा.
नई गाइडलाइंस के अनुसार, अब कुलपति के पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार को 10 वर्ष का टीचिंग अनुभव होना आवश्यक नहीं होगा. इसके बजाय, संबंधित क्षेत्र में दस साल का कार्य अनुभव रखने वाले विशेषज्ञ, जिनका ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा हो, इस पद के लिए योग्य माने जाएंगे. पहले कुलपति पद के लिए उम्मीदवार को शिक्षा के क्षेत्र में कम से कम 10 साल का कार्यकाल होना अनिवार्य था.
अब तक कुलपति की नियुक्ति एक निर्धारित प्रक्रिया के तहत होती थी, जिसे विश्वविद्यालयों की गवर्निंग बॉडी या बोर्ड ऑफ गवर्नर्स द्वारा संचालित किया जाता था. आमतौर पर, कुलपति की नियुक्ति राज्य सरकार या केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा मंत्रालय के मार्गदर्शन में की जाती थी. विश्वविद्यालय की सर्च कमिटी, जो एक सिलेक्शन कमेटी के रूप में कार्य करती है, उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करती थी. इस प्रक्रिया में उम्मीदवार के अकादमिक और प्रशासनिक अनुभव को ध्यान में रखा जाता था, और फिर गवर्निंग बॉडी या गवर्नर द्वारा नियुक्ति की पुष्टि की जाती थी.
प्रोफेसर बनने के लिए अभी तक कुछ प्रमुख क्राइटेरिया होते हैं. सबसे पहले, उम्मीदवार के पास संबंधित क्षेत्र में मास्टर डिग्री और पीएचडी होनी चाहिए, जो शैक्षिक योग्यता के रूप में जरूरी है. इसके साथ ही, प्रोफेसर बनने के लिए शिक्षण अनुभव भी अनिवार्य होता है, और आमतौर पर उम्मीदवार को संबंधित क्षेत्र में 8-10 साल का अनुभव होना चाहिए. इसके अलावा, प्रोफेसर बनने के लिए उम्मीदवार का अच्छा रिसर्च वर्क और अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख भी होना जरूरी है. अंत में, उम्मीदवार को यूजीसी नेट का पेपर पास करने की आवश्यकता हो सकती है, जो उनकी शैक्षिक योग्यता को प्रमाणित करता है.
नई गाइडलाइंस के तहत, प्रोफेसर बनने के लिए जरूरी शैक्षिक और अनुभव संबंधी कुछ बदलाव किए गए हैं. अब सिर्फ शिक्षण अनुभव ही नहीं, बल्कि संबंधित क्षेत्र में अनुभव और रिसर्च वर्क को भी महत्व दिया जाएगा. इससे यह भी संभव है कि जिनके पास अधिक कार्य अनुभव है, लेकिन शैक्षिक संस्थानों में कुछ कम शिक्षण अनुभव है, वे भी प्रोफेसर बन सकेंगे.
इन बदलावों के फायदे और नुकसान दोनों हैं. फायदे में पहला यह है कि यह उन उम्मीदवारों के लिए फायदेमंद है, जिनके पास एक विशेष क्षेत्र में अच्छा कार्य अनुभव है, लेकिन शिक्षण अनुभव कम है. इससे ऐसे विशेषज्ञों को अवसर मिलेंगे जो अपने क्षेत्र में अनुभवी हैं, लेकिन पहले शिक्षण के अनुभव के कारण प्रोफेसर नहीं बन पाए थे.
दूसरा, इस बदलाव से विश्वविद्यालयों में विविधता बढ़ेगी, क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ नए विचार और दृष्टिकोण लाएंगे. तीसरा, कुछ विशेषज्ञों के पास शिक्षण अनुभव कम हो सकता है, लेकिन उनका कार्य अनुभव और ट्रैक रिकॉर्ड शानदार हो सकता है, जिससे वे जल्दी प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो सकते हैं.
हालांकि, इसमें कुछ नुकसान भी हैं. सबसे पहला नुकसान यह है कि यदि उम्मीदवार का शिक्षण अनुभव कम होगा, तो वह छात्रों को सही तरीके से मार्गदर्शन नहीं कर पाएंगे, और शिक्षा और शोध के बीच संतुलन बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो सकता है. दूसरा, कुछ लोग इसे परंपरागत शैक्षिक व्यवस्था के खिलाफ मान सकते हैं, जिसमें लंबे समय तक शिक्षण अनुभव और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वालों को प्राथमिकता दी जाती थी.
तीसरा, यह बदलाव कुछ क्षेत्रों में असमानताएं उत्पन्न कर सकता है, खासकर यदि उम्मीदवार का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा हो, लेकिन उस क्षेत्र में प्रशिक्षित और योग्य शिक्षक न हो. कुल मिलाकर, इन बदलावों का उद्देश्य उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नई सोच और विशेषज्ञता को बढ़ावा देना है, लेकिन इसके साथ यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि शिक्षण गुणवत्ता और छात्रों का मार्गदर्शन सही तरीके से किया जाए.