दुनिया की सबसे बड़ी आबादी, सबसे लंबा इंतज़ार
भारत ने भले ही दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होने का ‘ताज’ अपने सिर सजा लिया हो, लेकिन इसके साथ ही सबसे लंबे इंतज़ार का बोझ भी हमारे हिस्से आया है। हर तरफ भीड़ है, हर तरफ कतारें हैं और हर इंसान अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा है। ऐसा लगता है जैसे अब इंसान की पहचान उसका टोकन नंबर बन चुकी है। यह 21वीं सदी का कड़वा सच है, जहां तरक्की की नहीं, बल्कि बारी आने की होड़ लगी है।
आज यह विचारणीय है कि क्या ये कतारें हमें ज़िंदगी की तरफ ले जा रही हैं या बस वहीं खड़ा किए हुए हैं, जिधर कोई रास्ता नहीं जाता?
जनसंख्या: शक्ति या विनाश का कारण
जनसंख्या, यदि संभाली जाए, तो किसी भी देश के लिए एक शक्ति बन सकती है। लेकिन अगर यह बेकाबू हो जाए, तो वही शक्ति विनाश का कारण भी बन जाती है। आज से 225 साल पहले, जब पूरी दुनिया की आबादी मात्र 100 करोड़ थी, तब इंसान धरती पर कम थे और उम्मीदें ज़्यादा। लेकिन आज, यह संख्या 823 करोड़ पार कर चुकी है और हर सेकंड के साथ यह गिनती आगे बढ़ रही है। यह कोई साधारण मीटर नहीं, यह जनसंख्या का टाइम बम है, जो हर पल टिक-टिक कर रहा है… चुपचाप, लेकिन खतरनाक। और हम सब इसके सामने बेखबर खड़े हैं।
भारत में जनसंख्या का ‘विस्फोट’ और उसकी जड़ें
आपके आसपास की हर समस्या—अस्पताल की भीड़ हो या स्कूल में दाखिले की मारामारी, ट्रैफिक जाम हो या बेरोजगारी—के पीछे एक बड़ी वजह है: जनसंख्या का यह बेकाबू विस्फोट। भारत अब दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है। हम नंबर वन हैं… लेकिन भीड़ में, भागदौड़ में, संसाधनों के लिए लड़ाई में, और बेतहाशा बढ़ते दबाव में।
यहाँ अस्पताल में बिस्तर नहीं, स्कूलों में सीट नहीं, और नौकरियों में जगह नहीं। हर चीज़ पर लाइन है… क्योंकि हर तरफ लोग ही लोग हैं। अब यह सवाल उठता है कि क्या हम इस भीड़ में सिर्फ गिनती बनकर रह जाएंगे? या अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ गिनती नहीं, ज़िम्मेदारी भी बनें?
आंकड़ों की ज़ुबानी, भारत की कतारों की कहानी
पूरी दुनिया की 17% आबादी अकेले भारत में रहती है, यानी हर 100 लोगों में से 17 यहीं के हैं। भारत अब दुनिया का सबसे ज्यादा ‘भरा हुआ’ देश है — 146 करोड़ लोग। चीन 141 करोड़ पर दूसरे नंबर पर है, अमेरिका 35 करोड़, इंडोनेशिया साढ़े 28 करोड़ और पाकिस्तान साढ़े 25 करोड़ के साथ पीछे हैं।
लेकिन असली बात यह है कि अब भारत में सिर्फ आबादी नहीं है, अब यहां भीड़ है, और यह भीड़ सिर्फ सड़कों पर नहीं, हर जगह है, अस्पताल से लेकर स्कूल तक, बस से लेकर ट्रेन तक, मंदिर से लेकर मॉल तक, यहां तक कि श्मशान और कब्रिस्तान तक।
हमारा देश भारत, अब एक ‘हाउसफुल’ घर बन चुका है। हर कोना भरा है, हर दरवाज़े पर लाइन है, और हर रास्ते पर जाम। अब यह देश नहीं, ‘इंतज़ार का इलाका’ बन गया है — और इस इंतज़ार की वजह है जनसंख्या का वो विस्फोट जो सबकी आंखों के सामने हुआ, लेकिन किसी ने समय रहते कुछ किया नहीं।
कुछ आंकड़े इस कड़वी हकीकत को और स्पष्ट करते हैं:
- रेलवे स्टेशन: भारत में करीब साढ़े सात हज़ार रेलवे स्टेशन हैं, यानी दो लाख लोगों पर सिर्फ एक स्टेशन।
- यात्री ट्रेनें: एक लाख लोगों पर सिर्फ 900 सीटों वाली एक पैसेंजर ट्रेन।
- हवाई अड्डे: एक करोड़ छह लाख लोगों पर सिर्फ एक एयरपोर्ट।
- सरकारी बसें: 10 हज़ार लोगों पर एक 70 सीटों वाली सरकारी बस… जबकि एक बस में मुश्किल से 60 लोग सफर कर सकते हैं।
- एटीएम: पांच हज़ार लोगों पर सिर्फ एक एटीएम। शुक्र है डिजिटल पेमेंट आ गया, वरना हर त्योहार से पहले हफ्ते भर की लाइनें लगतीं।
- सरकारी अस्पताल: 40 हज़ार लोगों पर सिर्फ एक सरकारी अस्पताल या स्वास्थ्य केंद्र… और फिर लोग कहते हैं इलाज समय पर क्यों नहीं मिला।
- हिल स्टेशन: पूरे देश में सिर्फ 150 हिल स्टेशन हैं… यानी एक करोड़ लोगों पर एक। इसलिए पहाड़ों में अब सुकून नहीं, जाम है।
- सिनेमा हॉल: 9 हज़ार सिनेमा हॉल हैं पूरे देश में… एक लाख 62 हज़ार लोगों पर सिर्फ एक। इसलिए टिकट नहीं मिलता, शो हाउसफुल है।
यह आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि जब तक जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं होगा, ये लाइनें कभी खत्म नहीं होंगी—चाहे ज़िंदगी की हो या मौत की।
दो भारत की हकीकत: VIP और आम आदमी की जिंदगी का फर्क
आज भारत में सिर्फ एक भारत नहीं बचा, यहां दो भारत हैं। एक वो, जहां आम लोग रहते हैं, और दूसरा वो, जहां VIP और अमीर लोग रहते हैं। आम लोगों वाले भारत में भीड़ है, लाइनें हैं, धक्का-मुक्की है, अफरा-तफरी है, नियम-कानून हैं, घंटों का इंतज़ार है और कई बार आखिरी में एक लाइन सुनने को मिलती है: “काउंटर बंद हो गया, कल आइए।”
लेकिन VIP भारत में कुछ भी ऐसा नहीं है… ना लाइन, ना नियम, ना इंतज़ार। वहां सिर्फ पहुंच चाहिए या पैसा, और काम मिनटों में हो जाता है। सरकार कहती है हर भारतीय वीआईपी है, लाल बत्तियां भी हटा दी गईं, लेकिन असलियत ये है कि सिस्टम अब भी उन्हीं के लिए झुकता है जिनके पास पैसा है। ये पैसे वाले कतार में पीछे नहीं लगते, सीधे सबसे आगे आ खड़े होते हैं… और यह सबसे खतरनाक लाइन है, जो खरीदी जा सकती है। उनके लिए कानून भी नरम होता है और सिस्टम भी। आम आदमी इस भीड़ में हर दिन घिसता है, थकता है, लेकिन फिर भी उसकी कोई सुनवाई नहीं। और जब वह कुछ कर ही नहीं सकता, तो बस अगली सुबह फिर से उसी लाइन में लग जाता है।
यह वह असली तस्वीर है भारत की—जहां भीड़ सबके लिए नहीं है, घुटन सबको बराबर नहीं मिलती, और जनसंख्या का बोझ भी अमीर और गरीब पर एक जैसा नहीं गिरता।
घनी आबादी का सच:
सोचिए, एक वर्ग किलोमीटर के कमरे में भारत में औसतन 492 लोग ठुंसे हुए हैं, जबकि इसी साइज़ के कमरे में चीन में सिर्फ 151, अमेरिका में 38, इंडोनेशिया में 158 और पाकिस्तान में 331 लोग रहते हैं। यानी, दुनिया के सबसे बड़े घर में सबसे ज्यादा भीड़ है। एक तरफ देश का वो हिस्सा है जहां लोग कोठियों, बंगलों और हवादार हवेलियों में रहते हैं, उनके यहां बिजली, पानी, सफाई, सीवर और ट्रैफिक जैसी कोई टेंशन नहीं है। दूसरी तरफ वो भारत है जहां लोग छोटी सी जगह में सांस लेने की जगह भी मांगते हैं और हर सुविधा के लिए संघर्ष करते हैं।
जनसंख्या: बोझ नहीं, शक्ति भी बन सकती है
हालांकि चुनौतियां बड़ी हैं, यह भी सच है कि इतनी बड़ी जनसंख्या अगर सही दिशा में लगाई जाए, तो वही भीड़ हमारी सबसे बड़ी ताकत बन सकती है। अगर हर नागरिक को बेहतर शिक्षा मिले, सही प्रशिक्षण दिया जाए और युवाओं को नई-नई स्किल्स सिखाई जाएं, तो यही जनसंख्या भारत की सबसे बड़ी पूंजी बन सकती है। जिस देश के पास करोड़ों युवा हों, वहां सिर्फ चुनौतियां नहीं, अवसर भी होते हैं, बस ज़रूरत है उन्हें संसाधन देने, आगे बढ़ने का मंच देने और उन्हें काम करने का सही मौका देने की।
सरकार ने स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए कोशिश की है, ताकि भारत की जनसंख्या बोझ नहीं, भविष्य का इंजन बन सके। इन पहलों का उद्देश्य युवाओं को आत्मनिर्भर बनाना और उन्हें वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना है।
भीड़ में बढ़ता अकेलापन: 21वीं सदी का नया सच
जनसंख्या तो रॉकेट की रफ्तार से बढ़ रही है, लेकिन इंसान अपने ही घर, अपने ही मोहल्ले, अपने ही दिल में अकेला होता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट कहती है कि दुनिया में हर घंटे सौ लोग अकेलेपन के कारण दम तोड़ देते हैं। यह कितनी बड़ी विडंबना है: भीड़ बढ़ रही है, लेकिन इंसान अकेला पड़ रहा है। पहले मोहल्ले में सब एक-दूसरे को जानते थे, एक की तकलीफ सबकी तकलीफ होती थी, लेकिन अब हाल यह है कि लोग अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते।
हम एक ऐसे समाज में बदलते जा रहे हैं जहां चारों तरफ शोर है, लेकिन भीतर एक गहरा सन्नाटा है। जहां लोग आसपास हैं, लेकिन साथ नहीं हैं। और यह अकेलापन सिर्फ उम्रदराज लोगों का नहीं है, बच्चे, युवा, बुज़ुर्ग… हर कोई कहीं न कहीं इस भीड़ में गुम है, कटा-कटा सा है। हम अपने समाज की जड़ों से दूर हो गए हैं, वो जड़ें जहां ज्वाइंट फैमिली होती थीं, पड़ोसी रिश्तेदार जैसे होते थे, और रिश्तों में गर्मी होती थी, दिखावे की नहीं। अब अगर आपके पास पैसा नहीं है, स्टेटस नहीं है, दावतें नहीं हैं, तो आप इस समाज के हाशिए पर धकेल दिए जाते हैं।
जैसा कि खलील धनतेजवी ने लिखा:
“अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूं, अपने खेतों से बिछड़ने की सज़ा पाता हूं, इतना महंगाई के बाज़ार से कुछ लाता हूं, अपने बच्चों में उसे बांट के शर्माता हूं, अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूं।”
अब फैसला हमारे हाथ में
अब फैसला हमारे हाथ में है… क्या हम इस जनसंख्या को भीड़ मानकर डरते रहेंगे या इसे ताकत बनाकर दुनिया को चौंकाएंगे? वक्त आ गया है कि हम इस अकेलेपन की दीवार को तोड़ें और फिर से अपने समाज को इंसानों से जोड़ें। अगर आप कभी अकेला महसूस करें, तो याद रखिए, हम भी आपका परिवार हैं। आइए, इस डिजिटल भीड़ में एक ऐसा रिश्ता बनाएं, जो सिर्फ स्क्रीन का नहीं… दिल से दिल का हो। हमें इस भीड़ में संख्या नहीं, एक-दूसरे का साथ बनना होगा।
यह सिर्फ जनसंख्या नियंत्रण की बात नहीं, बल्कि एक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की भी है। क्या हम सिर्फ कतारों में खड़े रहने को अपनी नियति मान लेंगे, या एक ऐसे भविष्य की ओर देखेंगे जहाँ हर व्यक्ति को न केवल जगह मिले, बल्कि पहचान और सम्मान भी मिले?