इतिहास में कब और कहां हुआ किसानों का बड़ा आंदोलन, जिसने हिला दी थी सरकार की जड़े     

0
413

किसान आंदोलन

कृषि से संबंधित विवादित विधेयक इन दिनों ख़ूब सुर्ख़ियाँ बटोर रहे हैं। कई राज्यों के किसान आंदोलन के मूड में हैं और पिछले कई दिनों से उनका विरोध प्रदर्शन जारी है। कृषक आन्दोलन का इतिहास बहुत पुराना है और विश्व के सभी भागों में अलग-अलग समय पर किसानों ने कृषि नीति में परिवर्तन करने के लिये आन्दोलन किये हैं ताकि उनकी दशा सुधर सके। भारत में वक्त-बे-वक्त होने वाली सामाजिक उथल-पुथल में किसानों की भूमिका भले ही गौण रही हो, लेकिन भारतीय इतिहास के झरोखे में नजर दौड़ाएंगे, तो आपको पता चलेगा कि अपने ही देश में आजादी के पहले और आजादी के बाद किसानों के कई ऐसे आंदोलन हुए, जिसने यहां के हुक्मरानों की चूलें तक हिला के रख दी।खासकर, यदि हम आजादी के पहले की बात करें, तो भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आंदोलन की शुरुआत की चंपारण के नीलहा किसान और गुजरात के खेड़ा के किसानों की समस्याओं से हुई। एक तरह से देखेंगे, तो बिहार के चंपारण के नीलहा आंदोलन से ही महात्मा गांधी का भारत की आजादी की लड़ाई में पदार्पण भी हुआ।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में जिन लोगों ने शीर्ष स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें आदिवासियों, जनजातियों और किसानों का योगदान अहम रहा। आजादी से पहले किसानों ने अपनी मांगों के समर्थन में जो आंदोलन किए वे गांधीजी के प्रभाव के कारण हिंसा और बर्बादी से भरे नहीं होते थे, लेकिन अब आजादी के बाद किसानों के नाम पर जो आंदोलन हो रहे हैं, हिंसा और राजनीति से ज्यादा प्रेरित दिखाई देते हैं।

देश में नीलहा किसानों का चंपारण सत्याग्रह, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, खेड़ा आंदोलन और बारदोली आंदोलन का नेतृत्व महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे मूर्धन्य नेताओं ने किया।

भारत में 1859 से किसानों के आंदोलन की हुई शुरुआत

भारत में किसान आंदोलनों की बात करें, तो उनके आंदोलन या विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी। अंग्रेजों की नीतियों से सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी कृषि नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली। वर्ष 1857 के सिपाही विद्रोह विफल होने के बाद विरोध का मोर्चा किसानों ने ही संभाला, क्योंकि अंग्रेजों और देशी रियासतों के सबसे बड़े आंदोलन उनके शोषण से उपजे थे। भारत में जितने भी किसान आंदोलन हुए, उनमें से ज्यादातर अंग्रेजों या फिर देश के हुक्मरानों के खिलाफ हुए और उन आंदोलनों ने शासन की चूलें तक हिला दीं। आजादी के पहले देश में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों ने भी किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों की ज्यादतियों का सबसे बड़ा संघर्ष, पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को प्रमुखता से प्रकाशित किया।

छापामार आंदोलन को दिया बढ़ावा

देश में आंदोलनकारी किसानों ने छापामार आंदोलन को तवज्जो दी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को देसी रियासतों की मदद से अंग्रेजों द्वारा कुचलने के बाद विरोध की राख से किसान आंदोलन की ज्वाला धधक उठी। इन्हीं में पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह और मोपला विद्रोह प्रमुख किसान आंदोलन शामिल हैं। वर्ष 1918 के दौरान गांधी के नेतृत्व में खेड़ा आंदोलन की शुरुआत की गई ठीक इसके बाद 1922 में ‘मेड़ता बंधुओं’ (कल्याणजी तथा कुंवरजी) के सहयोग से बारदोली आंदोलन शुरू हुआ। हालांकि, इस सत्याग्रह का नेतृत्व सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया। लेकिन, अंग्रेजी हुक्मरानों की चूलें हिलाने वाला सबसे अधिक प्रभावशाली किसानों का आंदोलन नीलहा किसानों का चंपारण सत्याग्रह रहा।

नील विद्रोह आंदोलन

नील विद्रोह किसानों द्वारा किया गया एक आंदोलन था। जो बंगाल के किसानों द्वारा सन 1859 में किया गया था।विद्रोह के आरंभ में नदिया जिले के किसानों ने 1859 के 3 मार्च में नील का एक भी बीज बोने से मना कर दिया था। यह आंदोलन पूरी तरह से अहिंसक था। इस आंदोलन में भारत के हिंदू और मुसलमान दोनों ने बराबर का हिस्सा लिया था ।

दक्कन का किसान आंदोलन

बता दें कि आजादी के पहले का किसानों का यह आंदोलन एक-दो स्थानों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि देश के कई भागों में पसर गया। दक्षिण भारत के दक्कन से फैली यह आग महाराष्ट्र के पूना,अहमदनगर,सतारा और शोलपुर समेत देश के कई हिस्सों में फैल गई। इसका एकमात्र कारण किसानों पर साहूकारों का शोषण था।यह विद्रोह साहूकारों के विरुद्ध किया गया था । वर्ष 1874 के दिसंबर में एक सूदखोर कालूराम ने किसान बाबा साहिब देशमुख के खिलाफ अदालत से घर की नीलामी की डिक्री प्राप्त कर ली। इस पर किसानों ने साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। इन साहूकारों के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत वर्ष 1874 में शिरूर तालुका के करडाह गांव से हुई।

यूपी में किसान का एका आंदोलन

होमरूल लीग के कार्यकताओं के प्रयास तथा मदन मोहन मालवीय के दिशा-निर्देश में फरवरी1918 में उत्तर प्रदेश में ‘किसान सभा’ का गठन किया गया। वर्ष 1919 के अं‍तिम दिनों में किसानों का संगठित विद्रोह खुलकर सामने आया। इस संगठन को जवाहरलाल नेहरू ने अपने सहयोग से शक्ति प्रदान की। उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच एवं सीतापुर जिलों में लगान में वृद्धि एवं उपज के रूप में लगान वसूली को लेकर अवध के किसानों ने ‘एका आंदोलन’ नामक आंदोलन चलाया।

केरल में मोपला विद्रोह

केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसानों द्वारा 1920 में विद्रोह किया गया। शुरुआत में यह विद्रोह अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ था। महात्मा गांधी, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने इस आंदोलन में अपना सहयोग दिया. इस आंदोलन के मुख्य नेता के रूप में अली मुसलियार उभरकर सामने आए। 1920 में इस आंदोलन ने हिन्दू-मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक हिंसा का रूप ले लिया और जल्द ही यह आंदोलन अंग्रेजों द्वारा कुचल दिया गया।

अंग्रेज सरकार से लड़ने के लिए कूका विद्रोह

कृषि संबंधी समस्याओं के खिलाफ अंग्रेज सरकार से लड़ने के लिए बनाए गए कूका संगठन के संस्थापक भगत जवाहरमल थे। गया, जहां पर 1885 में उनकी मौत हो गई।

महाराष्ट्र में रामोसी किसानों का आंदोलन

महाराष्ट्र में वासुदेव बलवंत फड़के के नेतृत्व में रामोसी किसानों ने जमींदारों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह किया। इसी तरह, आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध यह विद्रोह हुआ, जो सन् 1879 से लेकर सन् 1920-22 तक छिटपुट ढंग से चलता रहा।

झारखंड का टाना भगत आंदोलन

विभाजित बिहार के झारखंड में भी आजादी के दौरान टाना भगत ने 1914 में आंदोलन की शुरुआत की थी। यह आंदोलन लगान की ऊंची दर तथा चौकीदारी कर के विरुद्ध था। इस आंदोलन के मुखिया जतरा टाना भगत थे, जो इस आंदोलन के साथ प्रमुखता से जुड़े थे। मुंडा या मुंडारी आंदोलन की समाप्ति के करीब 13 साल बाद टाना भगत आन्दोलन शुरू हुआ। यह ऐसा धार्मिक आंदोनलन था, जिसके राजनीतिक लक्ष्य थे। यह आदिवासी जनता को संगठित करने के लिए नए ‘पंथ’ के निर्माण से जुड़ा आंदोलन था। यह एक तरह से बिरसा मुंडा के आंदोलन का ही विस्तार था।

Richa Sahay

The 4th Pillar, Contact - 9893388898, 6264744472