केरल के नौकरशाहों के बीच इन दिनों भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के दो अफ़सरों का निलंबन चर्चा का विषय बना है. हालाँकि, इनके निलंबन पर अधिकतर नौकरशाहों को क़तई ताज्जुब नहीं हो रहा है.
हाँ, इन दो अफ़सरों ने जो किया, उसने ज़रूर नौकरशाहों को बेचैन कर दिया है. ये इन दो अफ़सरों के काम को सिविल सेवा के मूल मूल्यों के उल्लंघन के तौर पर देख रहे हैं. निलंबित अफ़सरों में एक, साल 2013 बैच के प्रशासनिक सेवा के अधिकारी गोपालकृष्णन के हैं. वे उद्योग और वाणिज्य विभाग में निदेशक पद पर तैनात थे. दूसरे अफ़सर साल 2007 बैच के प्रशांत एन हैं. वे कृषि विभाग में विशेष सचिव के पद पर थे.
गोपालकृष्णन पर इल्ज़ाम है कि उन्होंने अफ़सरों का कथित तौर पर एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया था. इसका नाम उन्होंने ‘हिंदू’ ग्रुप रखा था. कुछ नौजवान अफ़सरों ने ऐसा ग्रुप बनाए जाने की आलोचना की. इसके बाद उन्होंने कथित तौर पर एक और ग्रुप बनाया. इस ग्रुप का नाम उन्होंने ‘मुस्लिम’ रखा. नाम न छापने की शर्त पर कुछ सेवानिवृत्त अफ़सरों ने इस मुद्दे पर बात की. उन्होंने कहा कि सिविल सेवा के इतिहास में ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था.’
देश में पहले भी मंत्रियों और अफ़सरों के बीच सार्वजनिक रूप से तक़रार होते रहे हैं. साल 1990-91 में कर्नाटक में अतिरिक्त मुख्य सचिव स्तर के एक अफ़सर और तब के मुख्यमंत्री एस. बंगरप्पा के बीच सार्वजनिक रूप से वाद-विवाद हुआ था. हालाँकि, ऐसा पहले नहीं हुआ था, जैसा केरल सरकार ने इन अफ़सरों के काम के बारे में टिप्पणी की है.
केरल सरकार का कहना है कि ‘इनके काम राज्य में अखिल भारतीय सेवा के कैडरों के बीच बँटवारे को बढ़ावा देने, फूट डालने और एकजुटता को तोड़ने वाले हैं.’ ‘पहली नज़र में यह भी पाया गया कि यह राज्य में अखिल भारतीय सेवाओं के कैडरों के बीच साम्प्रदायिक आधार पर समूह और गठबंधन बनाने की कोशिश है.’ जहाँ तक प्रशांत का मामला है, उनके निलंबन की वजह कुछ और है. उन पर आरोप है कि उन्होंने वित्त विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव डॉ. ए. जयतिलक के बारे में सोशल मीडिया पर ‘अपमानजनक भाषा’ का इस्तेमाल किया था.
इसे ‘गंभीर अनुशासनहीनता’ और ‘राज्य में प्रशासनिक तंत्र की सार्वजनिक छवि’ को धूमिल करने का मामला माना गया. पहली नज़र में माना गया कि इनकी टिप्पणी भारतीय प्रशासनिक सेवा में बँटवारा पैदा कर सकती है. आपसी मनमुटाव को बढ़ावा दे सकती है.गोपालकृष्णन ने जो किया ज़्यादातर अफ़सर, ख़ास तौर पर अहम पदों पर रह चुके रिटायर अफ़सर, उस कदम की हिक़ारत से आलोचना करते हैं.यहाँ तक कि बिहार कैडर से जुड़े रहे सिविल सेवा के एक अफ़सर का मानना है कि उन्होंने जो किया, उसके लिए महज़ निलंबन ही मुनासिब सज़ा नहीं है.
बिहार सरकार में प्रमुख सचिव रहे रिटायर अफ़सर एनएस माधवन से बीबीसी हिंदी ने बात की.उन्होंने कहा, ‘उन्हें (गोपालकृष्णन को) निलंबित किया गया है. मुझे नहीं लगता कि इस कदम को यहीं रुकना चाहिए. मुझे लगता है कि ऐसे संवैधानिक प्रावधान हैं, जिसके तहत उन्हें बिना किसी सुनवाई के बर्ख़ास्त किया जा सकता है. यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा और सिविल सेवा में बँटवारा पैदा करने वाला काम है. यह बहुत ही ख़तरनाक है.’
माधवन एक मशहूर लेखक भी हैं. उन्होंने कहा, ‘आपको मसूरी अकादमी में संविधान की शपथ दिलाई जाती है. इसके बाद आप ऐसा काम करते हैं. ऐसा तो सोचना भी नामुमिकन है.’साजन पीटर, गृह विभाग में अतिरिक्त मुख्य सचिव रह चुके हैं. अब रिटायर हैं. उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘इस तरह के बेसिर-पैर के व्यवहार की मैं केवल निंदा कर सकता हूँ.’
इस मामले में सरकार का आदेश सोमवार 11 नवंबर की देर रात आया था. इसमें कहा गया है कि गोपालकृष्णन ने पुलिस में एक शिकायत दर्ज़ कराई थी.उसमें इल्ज़ाम लगाया गया था कि ‘उनके डिवाइस (मोबाइल) को हैक कर लिया गया था और उसके बाद बिना उनकी रज़ामंदी के ग्रुप बनाया गया था.’ फिर लोगों को इससे जोड़ा गया.आदेश में ज़िक्र है, ‘जैसा कि गोपालकृष्णन ने दावा किया था, जाँच करने पर पता चला कि ऐसे कोई सुबूत नहीं हैं जो इशारा करते हों कि डिवाइस हैक हुआ था.’
‘यह भी पता चला है कि फोरेंसिक जाँच के लिए अपना फ़ोन देने से पहले अफ़सर ने ख़ुद ही अपने मोबाइल फ़ोन को कई बार फैक्ट्री रीसेट किया था. ’पहली नज़र में सरकार का मानना है कि यह व्हाट्सएप ग्रुप आईएएस गोपालकृष्णन ने बनाया था. इसका मक़सद राज्य में अखिल भारतीय सेवा के कैडरों के बीच बँटवारे को बढ़ावा देने, फूट के बीज डालने और एकजुटता को तोड़ना है. पहली नज़र में यह भी पाया गया कि यह राज्य में अखिल भारतीय सेवाओं के कैडरों के बीच साम्प्रदायिक आधार पर समूह और गठबंधन बनाने की कोशिश है.’
प्रशांत के मामले में सरकार की राय थी कि वह, ‘पहली नज़र में इस बात से संतुष्ट है कि आईएएस प्रशांत एन की टिप्पणियाँ गंभीर अनुशासनहीनता के दायरे में आती हैं.’ ‘ऐसी टिप्पणियाँ राज्य में प्रशासनिक तंत्र की सार्वजनिक छवि को धूमिल करती हैं. पहली नज़र में यह भी माना गया कि इनकी टिप्पणियाँ, भारतीय प्रशासनिक सेवा में बँटवारा पैदा कर सकती है.’ ‘आपसी मनमुटाव को बढ़ावा दे सकती हैं. इससे आम लोगों को मिलने वाली सेवाओं पर भी असर पड़ सकता है.’ ‘यही नहीं, पहली नज़र में यह भी पाया गया कि ऐसी टिप्पणियाँ करना, भारतीय प्रशासनिक सेवा के कैडर से जुड़े अफ़सर को शोभा नहीं देती हैं.’
सरकार ने माना कि पहली नज़र में गोपालकृष्णन ने जो किया वह, अखिल भारतीय सेवा (आचरण) नियम, 1968 का उल्लंघन है.मा धवन ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘आपको पता है, वे (गोपालकृष्णन) तभी पुलिस के पास गए, जब एक नौजवान अफ़सर ने उनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई.’ ‘जब उन्होंने यह हिंदू ग्रुप शुरू किया तो कई नौजवान अफ़सरों ने आवाज़ उठाई थी. तब उन्होंने मुस्लिम ग्रुप शुरू कर, अपने को संतुलित दिखाने की कोशिश की. एक नौजवान अफ़सर ने तब उनके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई.’
इस पर माधवन कहते हैं, ‘आज का जैसा माहौल है, उसे देखते हुए. शायद उन्हें लगता हो कि ऊपर बैठे लोगों को यह सब अच्छा लगेगा.’ ‘मुझे तो कोई और वजह नज़र नहीं आती. उन्हें लगता है कि यह सब आसानी से पचा लिया जाएगा. कौन जानता है, पचा भी लिया जाए. लेकिन मुझे नौजवान पीढ़ी से उम्मीद दिखती है.’
यह जानने के लिए हमारे सुमवादाता ने केरल आईएएस ऑफ़िसर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बी अशोक से बात की. वे कहते हैं, ‘जैसा कि चलन है, आईएएस ऑफ़िसर्स एसोसिएशन किसी एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ होने वाली अनुशासनात्मक कार्रवाई पर प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं करता है.’ ‘नीतिगत तौर पर यह उस अफ़सर और सरकार के बीच का मामला है. मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) के तहत, उस अफ़सर से जानने की कोशिश होती है कि वे हमसे किस तरह की मदद चाहते हैं.’ ‘बेशक, इसकी अपनी सीमाएँ हैं. अगर कोई कार्रवाई पूरी तरह से ग़लत है, तो हम सरकार से मिलेंगे और ज्ञापन देंगे.’
वे कहते हैं कि अफ़सर इस मूल विचार के तहत काम करते हैं कि सरकार हमारी नियोक्ता है. उनके मुताबिक, ‘… और इसीलिए जब वह कहती है कि आप काम से दूर रहें तो आपको इस अनुशासन का पालन करना चाहिए. एक समीक्षा समिति है. यह हर तीन महीने, छह महीने… के बाद निलंबनों पर विचार करती है.’ ‘अगर निलंबन की अवधि 12 महीने से ज़्यादा है तो इसके लिए भारत सरकार की मंज़ूरी की ज़रूरत पड़ती है. किसी अफ़सर को निलंबित रखना, सरकार के लिए भी नुक़सानदेह है. उसे उसकी तनख़्वाह का 50 फ़ीसदी देना पड़ता है. इसीलिए निलंबन का वक़्त कम ही रखा जाना चाहिए.’
अशोक का कहना है, ‘धार्मिक मुद्दे को ज़रा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है. कोई भी इंसान विभाजनकारी तरीक़े से काम नहीं कर सकता. कोई भी इंसान किसी भी धर्म का पालन कर सकता है.’ ‘हालाँकि, वह धार्मिक आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं कर सकता. अपने से बड़े या अपने मातहत अफ़सरों के साथ कैसा बर्ताव करें, इस मामले में भी सीमाएँ तय हैं.’ ‘कोई भी व्यक्ति असभ्य नहीं हो सकता. आलोचना तक तो ठीक है. किसी का चरित्र हनन नहीं चल सकता. किसी के साथ आपसी गुफ़्तगू में कुछ कहने और सार्वजनिक तौर पर कुछ कहने की अपनी सीमाऍं हैं. हम उम्मीद करते हैं कि यह मामला जल्द ही सुलझ जाना चाहिए.’