ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ईरान के संजार (सिजिस्तान) में पैदा हुए. एक वही ऐसे मुस्लिम संत हैं, जिनकी कीर्ति और यश भारतीय उपमहाद्वीप को भी पार कर गया और धर्म-पंथ या संप्रदायों की संकीर्णताओं को भी लांघ गया. अजमेर में ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अधिक पूजनीय है.
लेकिन इन दिनों वह कुछ अलग कारणों से चर्चा में है. यह एक ऐसी पवित्र दरगाह है, जहाँ महिलाएँ बेरोकटोक प्रवेश करती हैं. यहाँ ग़ैर मुस्लिम महिलाएँ भी बड़ी तादाद में आती हैं और मन्नत माँगती हैं.
इस दरगाह ने भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश से लेकर सुदूर अमेरिका, फ़्रांस और जर्मनी तक के राजनेताओं को चादर चढ़ाने के लिए आध्यात्मिक रूप से विवश किया. ये भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद, सियासत और संत परंपरा के रहस्यवाद का अनूठा गुलिस्तान है. ऐसा गुलिस्तान, जिसने धर्म, संप्रदाय, भोगौलिक सभी तरह की सरहदें तोड़कर अपनी महक और रहमत की रोशनी फैलाई.
दरगाह के इतिहास को कितना भी खंगाल लें, यह जिस संत के नाम से बनी है, उसे जानना और भी ज़रूरी और दिलचस्प है. “ग़रीब नवाज़” के नाम से पुकारे जाने वाले ख़्वाजा का जन्म साल 1142 में हुआ था. प्रसिद्ध रहस्यदर्शी संत ख़्वाजा उस्मान हारूनी के शिष्य ख़्वाजा साल 1192 में पहले लाहौर, फिर दिल्ली और इसके बाद अजमेर पहुँचे. इससे पहले वे बग़दाद और हेरात होते हुए कई प्रमुख शहरों में रहस्यवादी दार्शनिकों से रूबरू हुए थे.
ख़्वाजा का अजमेर में आगमन तराइन के युद्ध के बाद ऐसे समय हुआ, जब भारत में मुस्लिम शासन की शुरुआत हो रही थी. यह क़ुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, आरामशाह, रुक़्नुद्दीन फ़िरोज़ और रज़िया सुल्तान का समय था. ख़्वाजा बहुत कारामाती संन्यासी थे और रहस्यदर्शी थे. बताते हैं कि उनके यश को सुनकर उनसे मिलने एक बार इल्तुतमिश ख़ुद आए थे. कहते हैं कि रज़िया सुल्तान यहाँ कई बार आई थीं.
ख़्वाजा का अख़लाक़ ऐसा था कि अगर कोई करम कर नहीं सकता तो वह सितम तोड़ के देख ले. वह कहते थे कि इंसान किसी के भी ज़ुल्म का शांत रहकर बहुत ही सौंदर्यपूर्ण प्रतिकार कर सकता है. यही वह संदेश था, जिसकी प्यास उस समय हिंदुस्तान की रिआया के भीतर मचल रही थी.
प्रसिद्ध समाज सुधारक और आर्यसमाज के अनुयायी रहे हरविलास सारदा ने अपनी पुस्तक ”अजमेर : हिस्टॉरिकल एंड डिस्क्रिप्टिव” में उनके फ़कीराना अंदाज़ के बारे में लिखा है कि वे थिगलियाँ लगे कपड़े पहनते थे. ऊपर अंगरखा और नीचे दो-दो टुकड़े जोड़कर बनाई गई दुताई पहना करते थे. वे इस पुस्तक में इस दरगाह को अजमेर की एक ऐतिहासिक उपलब्धि के रूप में दर्शाते हैं.
यह भी कहा जाता है कि ख़्वाजा कई-कई दिन में एक रोटी खाते थे. लेकिन भूखों के लिए हर समय लंगर तैयार कराया करते थे. अनजान और भूखे ग़रीब लोगों के लिए उनकी मेहमाननवाज़ी के क़िस्से बहुत मशहूर हैं. ख़्वाजा का निधन साल 1236 में हुआ. तब तक उनका नाम देश में बहुत प्रसिद्ध हो चुका था.
बताते हैं कि ख़्वाजा कई-कई दिन तक साधना में चले जाते थे. ऐसे ही एक मौक़े पर जाने कब उनकी रूह ख़ला में समाहित हो गई थी.
इतिहासकार राना सफ़वी लिखती हैं, ” ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने राजाओं और किसानों को अपने प्रवचनों से आकर्षित किया. अजमेर का नाम सुनते ही ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ और उनकी दरगाह की छवि मन में आती है. यह संत समुद्र की तरह उदार और धरती की तरह मेहमाननवाज़ थे.”
ख़्वाजा के निधन के बाद उसी जगह एक दरगाह बनाई गई, जिसे 13वीं सदी में दिल्ली सल्तनत का संरक्षण मिला. इसके बाद उथल-पुथल भरे दौर में क़रीब दो सौ साल तक इसकी तरफ़ किसी ने ध्यान नहीं दिया.
लेकिन मांडू के सुलतान महमूद ख़िलजी और उसके बाद ग़ियासुद्दीन ने यहाँ पहली बार पक्की क़ब्र बनवाई और एक ख़ूबसूरत गुंबद बनवाया. मोहम्मद बिन तुग़लक संभवत: पहले बादशाह थे, जिन्होंने साल 1325 में दरगाह की ज़ियारत की.
तुग़लक शासक ज़फ़र ख़ान ने साल 1395 में दरगाह की यात्रा की थी. इस यात्रा के दौरान ज़फ़र ख़ान ने दरगाह से जुड़े लोगों को बहुत सारे उपहार दिए.
मांडू के ख़िलजी ने साल 1455 में अजमेर पर नियंत्रण किया और दरगाह को व्यापक संरक्षण दिया और एक भव्य द्वार, बुलंद दरवाज़ा और परिसर में एक मस्जिद बनवाई. उस समय तक यहाँ कोई ठोस संरचना नहीं थी.
इतिहासकारों के अनुसार मूल दरगाह लकड़ी से बनी थी. बाद में इसके ऊपर एक पत्थर की छतरी बनाई गई.
इतिहासकार राना सफ़वी के अनुसार, ” दरगाह परिसर में निर्माण का पहला ठोस सबूत दरगाह का गुंबद मिलता है, जिसे साल 1532 में अलंकृत किया गया था, जैसा कि मकबरे की उत्तरी दीवार पर सुनहरे अक्षरों में लिखे गए एक शिलालेख से पता चलता है.”
”यह वह ख़ूबसूरत गुंबद है जिसे हम आज देखते हैं. इंडो-इस्लामिक वास्तुकला को ध्यान में रखते हुए, गुंबद को कमल से सजाया गया है और रामपुर के नवाब हैदर अली ख़ान की ओर से पेश किया गया एक सुनहरा मुकुट इसके ऊपर रखा गया है.”
फ़ज़ुल्लाह जमाली (मृत्यु 1536) के अनुसार, उस समय दरगाह सब्ज़ावर, मिहना, जील, बग़दाद और हमादान के लोगों के बीच अच्छी तरह से जानी जाती थी.
जमाली ने शेख़ मोइनुद्दीन चिश्ती के बारे में कई ‘कहानियाँ’ एकत्रित की थीं. उनका यह भी कहना है कि दरगाह में बड़ी संख्या में लोग आते थे और हिंदुओं की ओर से मुजाविरों को उपहार भी दिए जाते थे.
अकबर ने पहली बार दरगाह का दौरा किया, तब तक यह चिश्ती रहस्यवादी परंपराओं के साथ-साथ एक लोकप्रिय तीर्थस्थल के रूप में उभर चुका था.
राहुल सांकृत्यायन ”अकबर” में लिखते हैं, “एक रात अकबर शिकार के लिए आगरा के पास किसी गाँव से जा रहे थे. कुछ गवैयों को अजमेरी ख़्वाजा का गुणगान करते सुना तो उसके मन में ख़्वाजा के प्रति भक्ति जगी और साल 1562 की जनवरी के मध्य में थोड़े से लोगों को लेकर वे अजमेर चल पड़े.”
इसे अबुल फ़ज़ल ने कुछ इस तरह लिखा है, ”एक रात महामहिम शिकार करने के लिए फ़तहपुर गए, तो आगरा से फ़तहपुर के रास्ते में एक गाँव में कुछ लोग ख़्वाजा मोइनुद्दीन की महिमा और गुणों के बारे में मनमोहक गीत गा रहे थे- ख़्वाजा की क़ब्र पवित्र हो! जो हजरत अजमेर में रहते हैं. जिनकी सिद्धियाँ और चमत्कार प्रसिद्ध हैं.”
मुग़ल सम्राट अकबर दरगाह के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे.
राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ”अकबर” के पृष्ठ-207 पर दर्ज है,”अप्रैल 1572 में संतान संबंधी मनौती के अनुसार अकबर पैदल ही ज़ियारत के लिए रवाना हुआ और 14 मील प्रति दिन की चाल से 16 मंज़िलों को पार कर अजमेर पहुँचा.”
हालाँकि, कुछ संदर्भों के मुताबिक वे अपनी संतान प्राप्ति की मन्नत लेकर नंगे पाँव फतेहपुर सीकरी शेख़ सलीम चिश्ती की दरगाह गए थे.
अकबर हर साल आगरा से अजमेर तक पैदल यात्रा कर दरगाह आते थे. अकबर ने दरगाह में एक मस्जिद भी बनवाई, जिसे अकबरी मस्जिद कहते हैं.
इतिहासकार अबुल फ़ज़ल लिखते हैं, ” अकबर साल 1562 में पहली बार दरगाह का दौरा करने वाले पहले मुग़ल शासक थे और उन्होंने दरगाह से जुड़े लोगों को ‘उपहार और दान’ दिए थे.”
साल 1568 में अकबर पैदल दरगाह आए ताकि वे अपनी पहले की गई मन्नत को पूरा कर सके.
अकबर ने देखा कि यहाँ हज़ारों निर्धन और तीर्थ करने वाले लोगों के लिए लंगर आयोजित होता है, तो उन्होंने अजमेर, चित्तौड़ और रणथंभौर के 18 गाँव दे दिए, जिनसे इसका ख़र्च निकलता था.
अकबर ने देखा कि इतने लोगों का लंगर पकाने में परेशानी आती है, तो उन्होंने दरगाह को एक पीतल की बहुत बड़ी देग दान में दी. अभी दरगाह में जो देग हैं, उन्हें अकबर का ही बताया जाता है.
लेकिन अजमेर निवासी हरविलास सारदा अपनी पुस्तक में लिखते हैं, “अकबर और जहाँगीर के दिए कड़ाहे लंगर पकाने लायक नहीं रहे तो सिंधिया के एक मंत्री मुल्ला मदारी ने सेठ अखेचंद मेहता की देखरेख में दो बहुत बेहतरीन देग बनवाए. जब ये भी ख़राब हो गए तो निज़ाम हैदराबाद ने दो असाधारण देग प्रदान किए. लेकिन दरगाह शरीफ़ के ख़ादिम आज के देगों को अकबर के दिए देग ही बताते हैं.” साल 1614 में जहाँगीर ने एक और कड़ाहा पेश किया था. आज जो कड़ाहे हैं, उनमें एक साथ 72 हज़ार लोगों का खाना बनाया जा सकता है.
अकबर ने साल 1569 में अजमेर में मस्जिद और ख़ानकाह बनाने के निर्देश दिए थे. लाल बलुआ पत्थर की अकबरी मस्जिद उन्हीं आदेशों का परिणाम है. शाहजहाँ ने साल 1637 में एक ख़ूबसूरत मस्जिद भी बनवाई थी और यह शाहजहानी दरवाज़ा के साथ दरगाह के पश्चिम में है.
सांभर झील से दरगाह को 25 प्रतिशत नमक मिलता था, जिससे सात रुपए आते थे. कुल मिलाकर पाँच हज़ार सात रुपए दरगाह के लंगर के लिए दिए जाते थे. बैरम ख़ान के शासन की समाप्ति के तुरंत बाद यानी 1560 की एक सनद है, जिसमें दरगाह के एक ख़ादिम को 20 बीघा भूमि के पुरस्कार का ज़िक्र है.
दरगाह को संरक्षण अकबर की अजमेर की पहली तीर्थयात्रा से पहले ही साल 1562 में मिल गया था और यह मुग़लों के सत्ता में रहने तक और उसके बाद भी जारी रहा.
दरगाह के मामलों में दिलचस्पी दरअसल अकबर की भारतीय तत्व को अपने शासक वर्ग में शामिल करने की नीति के साथ शुरू होती है.
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मुग़ल पारंपरिक रूप से सूफ़ीवाद के नक़्शबंदी संप्रदाय के अनुयायी थे.
उनके उस संप्रदाय के सूफ़ियों के साथ वैवाहिक संबंध थे. यह विरासत तैमूर के समय से चली आ रही है, जिन्होंने ख़्वाजा अता का मकबरा बनवाया और उनकी दरगाह का सम्मान किया.
अकबर न केवल ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह बल्कि दिल्ली में अन्य चिश्ती सूफ़ियों की क़ब्रों पर भी जाते थे.
इतिहासविद यह भी मानते हैं कि दरगाह का महत्व न केवल अकबर के आध्यात्मिक लाभ के लिए था, बल्कि इसने भारत में मुग़ल शासन की स्वीकार्यता को सुविधाजनक बनाने में भी मदद की.
अकबर ने अपने बेटों का नाम चिश्ती सूफ़ियों के नाम पर रखे- शेख़ सलीम के नाम पर सलीम और अजमेर दरगाह के ख़ादिमों में से एक शेख़ दानियाल के नाम पर दानियाल.
शाहजहाँ और अन्य मुग़ल सम्राटों ने भी दरगाह के निर्माण में योगदान दिया. शाहजहाँ ने यहाँ संगमरमर की ख़ूबसूरत मस्जिद बनवाई, जिसे शाहजहाँ मस्जिद कहते हैं.
मुग़ल शासकों का दरगाह से इतना रिश्ता रहा है कि दरगाह में उस भिश्ती की क़ब्र भी है, जिसने बादशाह हुमायूँ को गंगा में डूबने से बचाया था. इसके बदले हुमायूँ ने उसे आधे दिन का शासन दिया, जिसमें भिश्ती ने चमड़े के सिक्के चलाए थे.
सूफ़ी राजकुमारी और शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा बेगम ने दरगाह में कुछ ख़ूबसूरत मेहराबें बनवाई थीं. जहाँआरा बेगम ने छोटा सा चबूतरा भी बनवाया था, जिसे बेगमी चबूतरा कहते हैं. ब्रिटिश शासन के दौरान भी यह दरगाह आध्यात्मिक महत्व का केंद्र बनी रही. हालाँकि प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ बदलाव हुए.
दरगाह सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए आस्था का केंद्र बन गई. वार्षिक उर्स महोत्सव ने लाखों भक्तों को आकर्षित करना शुरू किया, जो आज भी दरगाह की सबसे बड़ी विशेषता है.
आधुनिक दौर में दरगाह को आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित किया गया है, जिससे श्रद्धालुओं को बेहतर अनुभव मिल सके. यह आज भी धार्मिक और पर्यटक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है.
दरगाह न केवल ग़रीब, निर्धन या धार्मिक विचारधारा वाले लोगों के लिए राहत का स्रोत रही है, बल्कि इसने राजनीतिक अभिजात वर्ग और आम जनता के बीच एक ‘तार’ के रूप में भी काम किया है.
यह स्थल इतना पूजनीय था कि शत्रुता के बावजूद स्थानीय शक्तियाँ यहाँ आने वालों को नहीं रोकती थीं.
आर्किटेक्चरल विशेषताएँ
बुलंद दरवाज़ा: मुख्य प्रवेश द्वार.
महफ़िल खाना: जहाँ क़व्वाली का आयोजन होता है.
शाहजहाँ मस्जिद: मुग़ल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना.
जन्नती दरवाज़ा: माना जाता है कि इसे पार करने से मनोकामनाएँ पूरी होती हैं.
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व
दरगाह सूफ़ी प्रेम, सेवा और एकता के मूल्यों को दर्शाती है. यह क़व्वाली संगीत और सूफ़ी साहित्य का केंद्र है. दरगाह सभी धर्मों के लोगों को आकर्षित करती है और सांप्रदायिक सद्भाव का प्रतीक है.
उर्स महोत्सव: यह ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पुण्यतिथि का उत्सव है, जो इस्लामी महीने रजब की पहली छह तारीख़ों में मनाया जाता है.
मिलाद-उन-नबी: पैग़ंबर मोहम्मद के जन्मदिन पर विशेष प्रार्थनाएँ और आयोजन होते हैं.
सूफ़ीवाद के चिश्तिया संप्रदाय की प्रथाओं और विचारधाराओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने एक ऐसा स्थान चुनकर अध्यात्म के क्षेत्र में एक नया मयार स्थापित किया, जो पहले से ही हिंदुओं के लिए एक बड़ा तीर्थस्थल था.
पूरे विश्व में ब्रह्मा के इकलौते मंदिर और एक अनूठी दरगाह रूहानियत के उन दरवाज़ों को अपनी सदा से एक साथ खोलते हैं, जिन पर ज़ेहनी तौर पर सुख और सुकून तलाशते लोग जाने कहाँ-कहाँ से और कैसी-कैसी पुकार लेकर चले आते हैं.