रायपुर, छत्तीसगढ़ : इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम, एक बार फिर मुस्लिम समुदाय के लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की कर्बला में हुई शहादत को याद करने का समय लेकर आ रहा है। यह महीना केवल एक नए साल की शुरुआत नहीं, बल्कि त्याग, बलिदान, और सत्य की राह पर अडिग रहने की प्रेरणा का प्रतीक है।
2025 में मुहर्रम की महत्वपूर्ण तिथियाँ
इस्लामी कैलेंडर चंद्रमा के दर्शन पर आधारित है, इसलिए ग्रेगोरियन कैलेंडर की तिथियों में थोड़ा अंतर आ सकता है। हालांकि, अनुमानित तिथियाँ इस प्रकार हैं:
* 1 मुहर्रम (चाँद दिखना): लगभग 26 जून, 2025 (गुरुवार)
* 10 मुहर्रम (यौमे आशूरा): लगभग 5 जुलाई, 2025 (शनिवार)
इन तिथियों में चाँद दिखने के आधार पर एक दिन का अंतर हो सकता है।
मुहर्रम क्यों मनाया जाता है: कर्बला की दर्दनाक कहानी
मुहर्रम का महीना मुख्य रूप से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत की याद में मनाया जाता है, जो पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे थे। यह घटना 61 हिजरी (680 ईस्वी) में कर्बला (वर्तमान इराक) के मैदान में घटित हुई थी।
उस समय, यज़ीद बिन मुआविया ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया था और इस्लामी सिद्धांतों के विरुद्ध अत्याचार और भ्रष्टाचार का मार्ग अपनाया था। इमाम हुसैन ने यज़ीद की बैयत (निष्ठा की शपथ) स्वीकार करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि एक भ्रष्ट शासक की बैयत इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ है। इमाम हुसैन ने अन्याय के आगे झुकने की बजाय सच्चाई और न्याय के लिए लड़ने का फैसला किया।
वह अपने परिवार और कुछ वफादार साथियों के साथ मदीना से कूफा की ओर निकले, जहाँ के लोगों ने उन्हें समर्थन का वादा किया था। हालाँकि, कूफा पहुँचने से पहले ही, यज़ीद की विशाल सेना ने उन्हें कर्बला के मैदान में घेर लिया।
कर्बला की त्रासदी
कर्बला में, इमाम हुसैन और उनके छोटे से काफिले को कई दिनों तक पानी से महरूम रखा गया। बच्चों और महिलाओं समेत सभी प्यास से तड़प रहे थे। 10 मुहर्रम को, जिसे यौमे आशूरा के नाम से जाना जाता है, यज़ीद की सेना ने इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों पर हमला कर दिया।
* इमाम हुसैन की शहादत: इस असमान युद्ध में, इमाम हुसैन ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया। उन्होंने अंतिम साँस तक इस्लाम के सिद्धांतों की रक्षा की। अंततः, प्यासे और घायल होने के बावजूद, उन्हें क्रूरता से शहीद कर दिया गया।
* मौला अब्बास की शहादत: इमाम हुसैन के भाई, हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम, जो ‘अलमदार’ (झंडाबरदार) के नाम से जाने जाते हैं, ने कर्बला के युद्ध में अद्भुत शौर्य दिखाया। बच्चों के लिए पानी लाने के प्रयास में, उन्होंने अपनी भुजाएँ गंवा दीं और अंततः शहीद हो गए। उनकी शहादत को वफादारी और बलिदान के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है।
* अन्य परिवारजनों की शहादत: इमाम हुसैन के युवा बेटे अली असगर को भी प्यास की हालत में तीर मारकर शहीद कर दिया गया, जबकि इमाम हुसैन उन्हें पानी पिलाने के लिए दुश्मनों के सामने लेकर आए थे। उनके अन्य बेटे, भाई, भतीजे और साथी भी एक-एक करके शहीद होते गए। इमाम हुसैन के केवल बीमार बेटे, इमाम ज़ैनुल आबेदीन, ही इस नरसंहार में जीवित बचे, ताकि इस्लाम का पैगाम आगे बढ़ सके। यह कहानी हमें सिखाती है कि अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा होना कितना महत्वपूर्ण है, भले ही इसके लिए सबसे बड़ा बलिदान ही क्यों न देना पड़े।
शिया और सुन्नी द्वारा मुहर्रम मनाने का अलग तरीका
इमाम हुसैन के बलिदान का सम्मान शिया और सुन्नी दोनों ही करते हैं, लेकिन उनके मुहर्रम मनाने के तरीकों में कुछ मूलभूत अंतर हैं:
शिया मुसलमान
शिया समुदाय के लिए मुहर्रम, विशेषकर आशूरा, गहरे शोक और मातम का दिन होता है। वे इमाम हुसैन और उनके परिवार की शहादत पर खुलकर दुःख व्यक्त करते हैं।
* मातम और सीनाजनी: शिया पुरुष काले कपड़े पहनकर जुलूस निकालते हैं, अपनी छाती पीटते हैं (सीनाजनी), और “या हुसैन!” के नारे लगाते हैं। यह उनके दुःख और इमाम हुसैन के प्रति प्रेम का इज़हार है।
* मजलिस: इमाम हुसैन की शहादत को याद करने के लिए विशेष सभाएँ (मजलिस) आयोजित की जाती हैं, जहाँ विद्वान उनकी जीवनी, शहादत और उनके बलिदान पर व्याख्यान देते हैं।
* ताजिया और अलम: ताजिया (इमाम हुसैन के रौज़े की प्रतिकृति) और अलम (झंडे) निकाले जाते हैं, जो इमाम हुसैन के काफिले का प्रतीक हैं।
* सबील (पानी पिलाना): कर्बला में इमाम हुसैन के साथियों को प्यासा रखने की घटना को याद करते हुए, लोग प्यासे लोगों को पानी और शरबत पिलाते हैं, जिसे सबील कहते हैं।
सुन्नी मुसलमान
सुन्नी समुदाय के लिए मुहर्रम भी महत्वपूर्ण है, लेकिन वे इसे शियाओं की तरह मातम के रूप में नहीं मनाते। सुन्नी समुदाय में आशूरा का दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन पैगंबर मूसा अलैहिस्सलाम ने फिरौन से मुक्ति पाई थी।
* रोज़ा (उपवास): कई सुन्नी मुसलमान 9वें और 10वें मुहर्रम या केवल 10वें मुहर्रम को रोज़ा रखते हैं। यह पैगंबर मोहम्मद साहब की सुन्नत (परंपरा) का पालन है।
* इबादत और दुआ: लोग विशेष नमाज़ें पढ़ते हैं, क़ुरान की तिलावत करते हैं और अल्लाह से दुआ मांगते हैं।
* खुत्बा: मस्जिदों में इमाम हुसैन की शहादत और उनके बलिदान पर खुत्बा (भाषण) दिए जाते हैं, लेकिन इसमें मातम का पहलू कम होता है।
मुहर्रम में ताजिया क्यों निकलता है और 2025 में ताजिया कब निकलेगा
ताजिया इमाम हुसैन के रौज़े (मज़ार) की एक प्रतीकात्मक प्रतिकृति है, जिसे मुहर्रम के जुलूसों में निकाला जाता है। ताजिया निकालने का उद्देश्य कर्बला की घटना और इमाम हुसैन के रौज़े को याद करना है। यह शिया मुसलमानों के लिए इमाम हुसैन के प्रति अपनी असीम श्रद्धा और शोक व्यक्त करने का एक तरीका है।
ताजिया बनाने में बांस, लकड़ी, कागज़, रंगीन चमकीले कागज़, जरी, गोटा और शीशे का प्रयोग किया जाता है। इसे बनाने वाले कारीगर कई हफ्तों या महीनों पहले से ही काम शुरू कर देते हैं, जिसमें बारीक नक्काशी, चित्रकारी और सजावट की जाती है। यह केवल एक कला नहीं, बल्कि भक्ति और समर्पण का प्रतीक है।
2025 में ताजिया जुलूस
मुख्य ताजिया जुलूस आमतौर पर 10 मुहर्रम, यानी 5 जुलाई, 2025 (शनिवार) को निकाले जाएंगे। कई स्थानों पर 8वें और 9वें मुहर्रम पर भी छोटे ताजिये और अलम के जुलूस देखे जा सकते हैं, लेकिन सबसे बड़ा और केंद्रीय जुलूस आशूरा के दिन ही होता है।
मुसलमान मुहर्रम के वक्त किस तरीके की जीवन शैली अपनाते हैं
मुहर्रम के दौरान, विशेषकर पहले 10 दिनों में, मुस्लिम समुदाय के लोग, खासकर शिया मुसलमान, एक विशिष्ट जीवन शैली अपनाते हैं:
* शोक और सादगी: लोग इस दौरान किसी भी प्रकार के जश्न या खुशी के आयोजनों से बचते हैं। शादियों और अन्य समारोहों को टाल दिया जाता है।
* काले कपड़े: शिया समुदाय के लोग शोक के प्रतीक के रूप में काले कपड़े पहनते हैं।
* धार्मिक क्रियाएँ: नमाज़, दुआ, क़ुरान की तिलावत और मजलिस में हिस्सा लेना इस महीने की प्रमुख धार्मिक गतिविधियाँ हैं।
* मातम: शिया समुदाय में मातम, सीनाजनी और नौहा ख्वानी (शोक गीत गाना) आम है।
* ज़रूरतमंदों की मदद: इस महीने में दान-पुण्य और ज़रूरतमंदों की मदद पर विशेष ध्यान दिया जाता है। कर्बला की घटना में पानी की कमी को याद करते हुए, लोग पानी और भोजन बांटते हैं।
* कम मनोरंजन: लोग टीवी देखने, संगीत सुनने और अन्य मनोरंजक गतिविधियों से दूर रहते हैं, ताकि वे शोक और आत्म-चिंतन पर ध्यान केंद्रित कर सकें।
मुहर्रम का महीना मुस्लिम समुदाय के लिए न केवल शोक का, बल्कि इमाम हुसैन के बलिदान से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को बेहतर बनाने और सच्चाई के रास्ते पर चलने का भी अवसर है। यह हमें सिखाता है कि अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना और सिद्धांतों के लिए खड़ा होना कितना महत्वपूर्ण है।