सीरिया से बशर अल-असद के शासन का ख़त्म होना ईरान के लिए सबसे बड़ा झटका बताया जा रहा है. ईरान अभी चौतरफ़ा घिर गया है.
इसराइल ने ईरान के प्रॉक्सी हिज़्बुल्लाह को लेबनान में कमज़ोर कर दिया है. हिज़्बुल्लाह के कमज़ोर होने से ईरान की मौजूदगी लेबनान में भी कमज़ोर पड़ी है. सीरिया से ईरान के भरोसेमंद साथी बशर अल-असद को भागना पड़ा. इसराइल ने हमास की भी कमर तोड़ दी है और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप फिर राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं, जो ईरान के प्रति काफ़ी सख़्त रहे हैं.
सीरिया में हुए ताज़ा घटनाक्रम का असर इराक़ में भी पड़ सकता है. कहा जा रहा है कि तुर्की सीरिया के बाद इराक़ और लेबनान में अपना प्रभाव बढ़ा सकता है.
ये सारी ऐसी चीज़ें हो रही हैं, जिनका असर पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन पर सीधा पड़ेगा. सीरिया में ईरान का कमज़ोर पड़ना उसकी प्रतिष्ठा और क्षेत्रीय रणनीति के लिए गहरा झटका है. इस इलाक़े में तुर्की को बढ़त मिलना ईरान की बड़ी चिंता है. तुर्की को ईरान मध्य-पूर्व में प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखता है. तुर्की अज़रबैजान का समर्थक है और ईरान आर्मीनिया का. सितंबर 2023 में तुर्की की मदद से अज़रबैजान को नागोर्नो-कारबाख में जीत मिली थी.
ईरान को यहाँ भी मुँह की खानी पड़ी थी. सीरिया में आए नतीजे से उत्साहित होकर तुर्की ज़ांगेज़ुर कॉरीडोर ट्रेड रूट पर नियंत्रण के लिए अज़रबैजान का समर्थन कर सकता है. अगर ऐसा होता है तो अज़रबैजान और आर्मीनिया तुर्की से सीधे जुड़ जाएंगे और ईरान कॉकसस से बाहर हो जाएगा.
ईरान पश्चिम एशिया में ऐसी ताक़त के रूप में देखा जाता है जो पूरे इलाक़े में शक्ति संतुलन बनाए रखता है. यानी पश्चिम के सहयोगी सऊदी अरब, इसराइल और तुर्की के दबदबे को ईरान चुनौती देता रहा है.
सऊदी अरब और खाड़ी के अन्य देशों में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद ने करण थापर को दिए इंटरव्यू में कहा, ”अभी इसराइल की योजना पूरे इलाक़े को लंबे युद्ध में ले जाने की है. अगर ऐसा होता है तो किसी भी लिहाज से ये भारत के लिए ठीक नहीं होगा.”
”भारत को चाहिए कि इसराइल पर दबाव बनाए और उसे रोके. अगर इस इलाक़े में टकराव बढ़ता है तो खाड़ी के देशों में रह रहे लगभग 85 लाख भारतीय नागरिकों को वापस आना होगा. भारत की ऊर्जा सुरक्षा बुरी तरह से प्रभावित होगी. ईरान अगर इस इलाक़े में कमज़ोर पड़ता है तो भारत के हित भी कमज़ोर पड़ेंगे.”
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र के प्रोफ़ेसर अश्विनी महापात्रा कहते हैं कि ईरान कमज़ोर तो पड़ा है, लेकिन हमेशा के लिए कमज़ोर नहीं हुआ है.
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, ”पश्चिम एशिया में ईरान का एक ताक़त के रूप में रहना भारत के हित में है. अगर ईरान कमज़ोर पड़ेगा तो सुन्नी शासकों का दबदबा बढ़ेगा और वे पाकिस्तान का साथ देंगे. तुर्की का दबदबा बढ़ेगा और वो भी पाकिस्तान की ही मदद करेगा. ऐसे में ईरान ही पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन करता है.”
प्रोफ़ेसर महापात्रा कहते हैं, ”ईरान के ज़रिए ही भारत मध्य एशिया के बाज़ार तक पहुँचता है. भारत ईरान में चाबहार पोर्ट बना रहा है. ऐसे में ईरान अस्थिर होता है तो भारत के हित कई मोर्चों पर प्रभावित होंगे. लेकिन मेरा मानना है कि ईरान दो से तीन साल में फिर से वो ताक़त हासिल कर लेगा. इसके कई कारण हैं. ईरान में प्राकृतिक संसाधन भरे पड़े हैं. वह अपने परमाणु कार्यक्रम में भी अब तेज़ी लाएगा. सबसे बड़ी बात है कि ईरान को मुश्किलों से निकलना आता है.”
1979 में इस्लामिक क्रांति के बाद से बशर अल-असद का परिवार ईरान का मुख्य क्षेत्रीय सहयोगी रहा है. ईरान और इराक़ के बीच 1980 से 1988 तक जो जंग हुई, उसमें सीरिया अरब का एकमात्र देश था, जिसने ईरान का समर्थन किया था. बाक़ी के अरब के देश इराक़ के साथ थे.
2011 में जब सीरिया में गृह युद्ध शुरू हुआ तो बशर अल-असद का विरोध बढ़ता गया, लेकिन ईरान साथ रहा. ईरान सीरिया के ज़रिए ही लेबनान में हिज़्बुल्लाह और ग़ज़ा में हमास तक मदद पहुँचाता था.
आफ़ताब कमाल पाशा जेएनयू में पश्चिम एशिया अध्ययन केंद्र में प्रोफ़ेसर रहे हैं. प्रोफ़ेसर पाशा मानते हैं कि ईरान की मुश्किलें भले बढ़ी हैं, लेकिन उसके पक्ष में भी कई चीज़ें जाएंगी.
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ”पहली बात तो यह कि ईरान कमज़ोर नहीं पड़ा है. जैसे कि भारत बांग्लादेश में कमज़ोर नहीं पड़ा है. भारत के लिए बांग्लादेश बोझ है और भारत ने उसे छोड़ दिया है कि अपना देख लो. ईरान ने हिज़्बुल्लाह को 30 अरब डॉलर दिए थे. सीरिया को भी अरबों डॉलर का क़र्ज़ दिया था.अब ईरान ये सारे पैसे ख़ुद को मज़बूत करने में खर्च करेगा. अपने परमाणु कार्यक्रम को गति देगा.”
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ”अर्दोआन को भले अभी लग रहा है कि उनकी जीत हुई है, लेकिन उनका पूरा ध्यान 2028 के चुनाव पर है. सीरिया में अस्थिरता बनी रहेगी. मेरा मानना है कि सीरिया कई हिस्सों में बँट सकता है. कुछ इलाक़े पर इसराइल क़ब्ज़ा करेगा.”
”इसराइल ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है. कुछ हिस्सों पर तुर्की क़ब्ज़ा करेगा. आपस में सु्न्नी और अलवाइट लड़ेंगे. कुर्द भी अपना हिस्सा मांगेंगे. ऐसे में ईरान के लिए सीरिया में घुसना कोई मुश्किल काम नहीं होगा.” प्रोफ़ेसर पाशा भी मानते हैं कि पश्चिम एशिया में ईरान कमज़ोर पड़ा तो भारत के हित प्रभावित होंगे.
प्रोफ़ेसर पाशा कहते हैं, ”ईरान के कमज़ोर होने का मतलब है कि तुर्की और अन्य सुन्नी देशों का मज़बूत होना. यह स्थिति पाकिस्तान के लिए ज़्यादा मुफ़ीद होगी. भारत को ईरान से सस्ते में गैस मिल सकती है लेकिन भारत अमेरिका के डर से हिम्मत नहीं दिखाता है.”
”ईरान की हमेशा से शिकायत रही है कि भारत उसके मामले में अमेरिका के सामने घुटने टेक देता है. पश्चिम एशिया में भारत ने अपने सारे अंडे एक ही टोकरी में रख दिए हैं. लेकिन भारत को इस बात का अहसास रहता है कि ईरान उसके लिए अहम देश है. भारत के लिए मध्य-पूर्व में मज़बूत इसराइल से ज़्यादा मज़बूत ईरान की ज़रूरत है.”
नवंबर 2019 में ईरान के तत्कालीन विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने कहा था भारत को अपनी रीढ़ और मज़बूत करनी चाहिए ताकि अमेरिका के दबाव के सामने झुकने से इनकार कर सके.
ज़रीफ़ ने भारत और ईरान के बीच सूफ़ी परंपरा के रिश्तों का भी ज़िक्र किया था. उन्होंने कहा था कि अमेरिकी प्रतिबंधों से पहले उन्हें उम्मीद थी कि भारत ईरान का सबसे बड़ा तेल ख़रीदार देश बनेगा. उन्होंने कहा कि अमेरिकी दबाव के सामने भारत को और प्रतिरोध दिखाना चाहिए.
ज़रीफ़ ने कहा था, ”ईरान इस बात को समझता है कि भारत हम पर प्रतिंबध नहीं चाहता है, लेकिन इसी तरह वो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भी नाराज़ नहीं करना चाहता है. लोग चाहते कुछ और हैं और करना कुछ और पड़ रहा है.”
”यह एक वैश्विक रणनीतिक ग़लती है और इसे दुनिया भर के देश कर रहे हैं. आप ग़लत चीज़ों को जिस हद तक स्वीकार करेंगे और इसका अंत नहीं होगा और इसी ओर बढ़ने पर मजबूर होते रहेंगे. भारत पहले से ही अमेरिका के दबाव में ईरान से तेल नहीं ख़रीद रहा है.”