संगमनगरी यानी उत्तर प्रदेश का प्रयागराज जिला, जहां इस बार महाकुंभ लग रहा है। महाकुंभ 13 जनवरी यानि आज से शुरू होकर 26 फरवरी तक चलेगा। इसमें देश-विदेश से 40 से 45 करोड़ श्रद्धालुओं के आने का अनुमान है।
दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजन अखाड़ों के शाही स्नान से लेकर बहुत कुछ देखने को मिलेगा। मेले में और क्या-क्या होगा, इसको जानने से पहले आइए हम आपको बताते हैं कि कुंभ और महाकुंभ क्या है? इसके शुरू होने के पीछे की पौराणिक कहानी क्या है?
क्या है कुंभ की कहानी
पौराणिक कथा के अनुसार कुंभ की कहानी सागर मंथन में निकले अमृत को पाने के लिए हुए युद्ध से शुरू होती है। कहते हैं कि युगों पहले अमृत की खोज में सागर को मथा गया था, जिसमें अमृत निकला। इस अमृत को पाने के लिए देवता और असुरों में भयंकर युद्ध हुआ था।
इस बड़े और विनाशकारी युद्ध में अमृत किसी के हाथ नहीं लगा। छीना-झपटी में कलश से अमृत कई बार छलका और अलग-अलग स्थानों पर जा गिरा। ये स्थान हरिद्वार (उत्तराखंड), प्रयागराज (उत्तर प्रदेश), उज्जैन (मध्य प्रदेश) और नासिक (महाराष्ट्र) थे।
अमृत की खोज के लिए कुंभ में आते है जनमानस
अमृत की यही खोज भारतीय जनमानस को एक साथ-एक जगह ले आती है। पवित्र नदियों के बहते जल के आगे सभी की सारी अलग पहचान छिप जाती है और वह सिर्फ साधारण मनुष्य रह जाते हैं। गंगा में कमर तक उतर डुबकी लगाकर झटके से ऊपर उठे माटी के जीवंत पुतलों से सिर्फ एक ही आवाज आती है, हर-हर गंगे, जय गंगा मैया।
गंगा घाट वह जगह बन जाते हैं, जहां सांसारिकता के सागर का मंथन होता है और इस मंथन से एकता की भावना का अमृत मिलता है। जिस आयोजन के तहत यह पूरी प्रक्रिया होती है, वह महाकुंभ कहलाता है।
देवता और असुर के युद्ध में अमृत कलश की हुई थी छीना-छपटी
कथा के अनुसार सागर मंथन में अभी अमृत कलश बाहर आया ही था कि इसे लेकर असुरों में होड़ मच गई कि वह इसे देवताओं से पहले अपने अधिकार में ले लेंगे और पी डालेंगे। राजा बलि की सेना में उनका एक सेनापति था स्वरभानु। वह जल, स्थल और आकाश तीनों ही जगहों पर तेज गति से दौड़ सकता था। उसने अमृत कलश को एक पल में ही धन्वंतरि देव के हाथ से झटक लिया और आकाश की ओर लेकर चला गया।
देवताओं के दल में भी इंद्र के पुत्र जयंत ने जैसे ही स्वरभानु को अमृत की ओर लपकते देखा तो वह तुरंत ही कौवे का रूप धरकर उसके पीछे उड़ा और आकाश में उसके हाथ से अमृत कुंभ छीनने लगा। जयंत को अकेला पड़ता देख सूर्य, चंद्रमा और देवताओं के गुरु बृहस्पति भी उनके साथ आ गए।
इस बीच स्वरभानु का साथ देने कुछ अन्य असुर भी आकाश में उड़े और इन सबके बीच अमृत कलश को लेकर छीना झपटी होने लगी। इसी छीना झपटी में कलश से अमृत छलका और पहली बार हरिद्वार में इसकी बूंदें गिरीं। इस तरह हरिद्वार तीर्थ बन गया।दूसरी बार अमृत छलका तो वह गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग में गिरा। इस तरह यह स्थान तीर्थराज बन गया।
अगले दो और प्रयासों में कुंभ से अमृत छलका तो वह उज्जैन में क्षिप्रा नदी में जा गिरा और चौथी बार नासिक की गोदावरी नदी में अमृत की बूंदें गिरीं। इस तरह गंगा नदी में दो बार, इसके अलावा क्षिप्रा और गोदावरी नदी में अमृत की बूंदें गिरीं और इनके किनारे बसे हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में कुंभ का आयोजन होने लगा।
कुंभ मेले के लिए कैसे होता है स्थान का चयन
कुंभ मेले का स्थान तय करने में ग्रहों की दशा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसमें सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति ग्रहों की स्थिति महत्वपूर्ण होती है। जब सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में होते हैं और बृहस्पति वृषभ राशि में, तब कुंभ मेला प्रयागराज में होता है।
वहीं, जब सूर्य मेष राशि और बृहस्पति कुंभ राशि में होता है, तो कुंभ मेला हरिद्वार में होता है। इसके साथ ही जब सूर्य सिंह राशि और बृहस्पति ग्रह भी सिंह राशि में होते हैं, तो कुंभ मेला उज्जैन में होता है। इसके अलावा जब, सूर्य सिंह राशि और बृहस्पति सिंह या कर्क राशि में होता है, तब कुंभ मेला नासिक में होता है।
कुंभ 12 साल में ही क्यों होता है
कुंभ मेले का आयोजन 12 साल पर होता है। कुंभ के 12 साल में ही होने का आधार ज्योतिषी गणना के साथ-साथ पौराणिक कथा भी है। ज्योतिषी गणना के अनुसार जब बृहस्पति ग्रह मेष राशि या सिंह राशि में प्रवेश करता है और सूर्य-चंद्रमा की स्थिति विशेष योग बनाती है, तब कुंभ मेले का आयोजन होता है। माना जाता है कि ग्रहों की यह स्थिति 12 पर आती है। इसलिए 12 साल में कुंभ मेले का आयोजन होता है।
वहीं, पौराणिक कथा के अनुसार, सागर मंथन में जब देवता और असुरों में अमृत कलश के लिए युद्ध हुआ तब इंद्र के बेटे जयंत ,असुर स्वरभानु से अमृत कलश छीनकर भाग गए थे। इसके बाद जयंत 12 दिन में स्वर्ग पहुंच सके थे। माना जाता है कि देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है। इसलिए, कुंभ का आयोजन 12 वर्षों में होता है।
कुंभ और महाकुंभ में क्या अंतर,144 साल बाद क्यों आता महाकुंभ
कुंभ चार प्रकार के होते हैं। कुंभ, अर्धकुंभ, पूर्णकुंभ और महाकुंभ। इसमें कुंभ का आयोजन हर 12 साल पर देश के 4 स्थानों में से एक जगह पर होता है।वहीं, अर्धकुंभ 6-6 साल में होता है। ये सिर्फ हरिद्वार और प्रयागराज में लगता है। बात करें पूर्णकुंभ की तो यह 12 साल में एक बार होता है। 12 पूर्णकुंभ होने पर यह महाकुंभ कहलाता है। इसीलिए प्रयागराज में इस बार लग रहे कुंभ मेले को महाकुंभ का नाम दिया गया है। इससे साफ है कि किसी भी इंसान की जिंदगी में सिर्फ एक ही बार महाकुंभ नहाने का पुण्य मिल सकता है।
महाकुंभ 2025 शाही स्नान
- पहला शाही स्नान पौष पूर्णिमा 13 जनवरी 2025 को होगा ।
- दूसरा शाही स्नान मकर संक्रांति 14 जनवरी 2025 को होगा ।
- तीसरा शाही स्नान मौनी अमावस्या 29 जनवरी 2025 को होगा ।
- चौथा शाही स्नान बसंत पंचमी 3 फरवरी 2025 को होगा।
- पांचवा शाही स्नान माघ पूर्णिमा 12 फरवरी 2025 को होगा ।
- आखिरी शाही स्नान महाशिवरात्रि 26 फरवरी 2025 को होगा ।
डिस्क्लेमर : ये लेख लोक मान्यताओं पर आधारित है। यहां दी गई सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए the4thpiller news उत्तरदायी नहीं है।